एक अन्तरावलोकन...!

हर वो घटना जो एक नारी के सम्मान को ठेस पहुंचती है, पूरे देश में आक्रोश और बदलाव की मांग, की एक लहर उठा देती है | हम धरने करते हैं, नारे लगते हैं, सरकार से सख़्त कानूनों की मांग करते हैं, सरकारें एक दुसरे पर दोषारोपण करती हैं, कुछ झूठे वादे किये जाते हैं, और क्यूंकि यह इक्कीसवीं सदी है तो इन सब के साथ-साथ अपने बेटों को और बेहतर इंसान बनाने की बातें करते हैं | पर क्या इतने वर्षों में हम यह सीख पाए हैं कि अपनी बेटियों की परवरिश कैसे करें ? 

क्या बचपन में हमने अपनी बेटियों की यह सिखाया गया था  कि कोई गलत तरह से छुए तो चिल्ला-चिल्ला कर सकबो बताना है ? या फिर यह कि बस चुप-चाप उसे भूल जाना है ? उससे इस बारे में कभी कोई बात करी या नहीं ? पर बात तो हमसे भी किसी ने नहीं करी, हम भी तो भूलना सीख गए | हाँ बात ना करना ही बेहतर है, वरना अजीब हो जायेगा ना थोड़ा ? विदाई के वक़्त आज भी लड़की को यही बोलते हैं क्या के आज से ससुराल ही तेरा घर है ? क्या अपने अपनी बेटी को ये बोला था कि आज से तेरे दो घर हैं ? है ना दो घर ? अच्छा ये सब ना सही पर शादी के बाद उसकी गलती ना होने पर भी उसे झुक जाने को तो नहीं बोला होगा, सही कहा ना ? खैर उसे तो बचपन से इस दिन के लिए ट्रेनिंग मिल रही थी अपनी माँ को देखते-देखते तो उतना मुश्किल नहीं रखा होगा | 

जब माँ दादी नानी पड़ोस वाली आंटी या काकी मामी की बुराई करती थी तो बड़ा मज़ा आता था ना सुनाने में ? एक औरत ही तो औरत को समझेगी, उसकी कमियां गलतियां सबसे पहले एक औरत को ही तो देखेगी | उसकी छुपी परिस्थितियाँ, दर्द और घुटन जो वो कह नहीं पाती उसे कौन समझे, हमारी खुद की उलझने कम हैं क्या ? क्या कभी एक औरत के लिए इनमे से कुछ सुना है ? अब एडजस्ट तो लड़की को ही करना पड़ता है, लड़के कहाँ समझते हैं यह सब | हाँ गलती तो है लड़के की, पर लड़की भी तो नहीं झुकना चाहती थी | ये सब तो हर घर की कहानी है सबको सहना पड़ता है | सुनाने के बाद हाँ में हाँ मिला दी थी या अपनी रॉय भी दी थी ? वैसे अपनी रॉय रखो न रखो, कहाँ हमे मन की बात बेवाकी से कहना सिखाया था किसी ने ? कोई चैप्टर था क्या स्कूल में ?

हम धरती में माँ को देख लेते हैं, शिव में पारवती को, पर एक औरत में एक इंसान को देखना आज भी कई लोगों के लिए मुश्किल और संवेदनशील कार्य है, हमे उन्हें और वक़्त देने की जरूरत है शायद | पर कोई और हममे क्या देखता है उससे ज्यादा ज़रूरी है हम खुद को किस तरह देखते हैं | अपनी बेटियों को हमने दुनिया की परवाह ना करना सिखाया है क्या ? जहाँ बचपन में घर-घर बुला कर जिसे देवी की तरह पूजा जाता है, उसे क्यों कुछ सालों बाद ही अपने परिचय के लिए किसे और के आईने में झांकना पड़ता है ? वो निर्बल नहीं है, उसकी इक्षा उसका मत भी ज़रूरी है, गलत को गलत बोलना उसका अधिकार है, और अपनी ख़ुशी के लिए जीना स्वार्थ नहीं है | यह जब तक माता पिता नहीं सिखाएंगे, तब तक उस बेटी को उसकी लड़ाई लड़ने के लिए किसी न की ज़रुरत पड़ती रहेगी | 

या देवी सर्वभूतेषु शक्ति-रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥


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