वो सुर्ख़ लाल ग़ुलाब ...|

"ये रहीं ऋतिका की बुक्स और पेंसिल बॉक्स | और कुछ तो नहीं रह गया ?"
"टेलर के यहाँ से जो आप कुर्ता पिछले सप्ताह लाने वाले थे ... "
"अरे यार स्वाति...सो सॉरी मैं कल पक्का... "
"अरे बाबा मैं वो कुर्ता ले आई | डोंट वरि | "
"तुम भी ना स्वाति | ऋतिका बेटा, यहाँ आइये और अपना सामान ले जा कर अंदर रखिये | "
ऋतिका भागते हुए आई, "थैंक यू पापा | दादी दादी देखो मेरा नया पेंसिल बॉक्स... " कहती हुई दादी के कमरे में वापस चली गई |

"जब से माँ आई हैं ये बस उन्ही के कमरे में रहती है न ? "
"हाँ, कम से कम मेरा सर नहीं खाती अब दिन भर, सवाल पूछ-पूछ कर | "
"हाहाहाहा। ... अरे माँ ! आइये बैठिये न | "
"उदय, बेटा  मैंने तुझसे एक गुलाब मंगवाया था वो नहीं लाया तू? "
"माँ मैं बिलकुल भूल गया, कल ले आऊंगा | पक्का | वैसे आपको चाहिए क्यों गुलाब का फूल? पूजा के लिए और भी फूल लगे हैं हमारी बालकनी में | "
"नहीं पूजा के लिए नहीं बालों में लगाने के लिए | " इतना कहकर माँ वापस अपने कमरे में चली गई |

मैं और स्वाति एक दुसरे को देखते रहे पर किसी ने कुछ नहीं बोला | गुलाब का फूल ? इस उम्र में ? इस उम्र में माँ को गुलाब क्यों लगाना है बालों में ? सोसाइटी वाले देखेंगे तो क्या सोचेंगे ?
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३ दिन तक रोज़ माँ मुझे पूछती रही के मैं उनका गुलाब लाया या नहीं और मैं कुछ ना कुछ बहाना बनाकर कल पर बात टाल देता | आखिकार चौथे दिन ऑफिस से निकलते वक्त फूल की दूकान से एक सुर्ख लाल गुलाब खरीदा | रस्ते भर सोचता रहा के माँ से क्या बोलूंगा | उन्हें बैठाकर समझाऊंगा कि अब उनकी ये सब करने की उम्र नहीं है | हम अच्छी सोसाइटी में रहते हैं | उनकी उम्र की औरतें गुलाब नहीं लगाती बालों में | अगर वो फूल लगाकर कहीं बहार गई तो लोग बातें बना सकते हैं तरह-तरह की | और ये मुझे अच्छा नहीं लगेगा | आखिर इंसान को उसकी उम्र के मुताबिक़ ही चलना चाहिए न ? हाँ, ये ठीक है | यही समझाऊंगा माँ को | माँ समझ जाएँगी | मैंने खुद से कहा |

"स्वाति, माँ कहाँ है? "
"अपने कमरे में | क्यों ? "
हाँथ में गुलाब लिए मैं उनके कमरे की तरफ ऐसे बड़ रहा था जैसे किसी से अपने दिल की बात कहने जा रहा हूँ | और पता नहीं सामने वाला समझेगा या नहीं |
"माँ मैं अंदर आ जाऊँ ? आपसे कुछ बात करनी है | "
"उदय तू गुलाब ले आया ? " माँ ने चहकते हुए गुलाब देखकर कहा |
मैं कुछ और कहता उससे पहले ही माँ ने मेरे हाँथ से गुलाब ले लिया और शीशे में देखकर उसे अपने बालों में लगाने लगी |
"पता है उदय तेरे पापा से मेरी जब भी लड़ाई होती थी वो हमेशा मुझे मानाने के लिए शाम में एक गुलाब मेरे बालों में लगा दिया करते थे | और मेरा सारा गुस्सा पिघल जाता था | मुझसे ज्यादा ख़ुशी इस गुलाब को देखकर उन्हें हुआ करती थी | कैसा लग रहा बता ? "
उस चेहरे पर ये ख़ुशी ना जाने कब देखी थी मैंने | मानो जैसे किसी बच्चे को उसका खोया हुआ खिलौना मिल गया हो | मैं कैसे भूल गया के ये सिर्फ फूल नहीं मेरी माँ की ज़िन्दगी की कुछ मीठी यादें हैं |
"अरे बता न कैसा लग रहा है ? बाल अब ज्यादा सफ़ेद हैं पर कभी कभी लगाऊँ तो बुरा तो नहीं लगेगा न ? " माँ ने खुद को शीशे में निहारते हुए पूछा | "अच्छा छोड़ तू बता तुझे कुछ कहना था | "

मैंने मन भर के माँ को एक और बार देखा और कहा "बस यही माँ कि तू आज भी उतनी ही सुन्दर है |"

उस रात मैं १ पल भी नहीं सोया | पूरे समय सिर्फ माँ का चेहरा और वो गुलाब मेरी आँखों के सामने थे | मुझे लगा था सर पर एक छत दे दी, तो मैं माँ का ख्याल रख रहा हूँ | आज समझा मैं कितना गलत था | मैं सिर्फ उनकी जरूरतों और अपनी ख़ुशी के बारे में सोच रहा था | माँ की ख़ुशी तो मैंने कभी जानने की कोशिश ही नहीं की | माँ की खुशियाँ उम्र क दायरे और समाज की बंदिशों में कैसे बाँध सकता हूँ मैं | उस रात मुझे सिर्फ सूरज की पहली किरण का इंतज़ार था |
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"क्या कर रहा है उदय सुबह सुबह ? ये क्या है उदय ? इतने सारे गुलाब के पौधे ?"
"माँ ये सब तेरे लिए हैं | अब जब तेरा मन करे तब तू बालों में गुलाब लगाना | तुझे इंतज़ार नहीं करना होगा |  "


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