बचपन की पोटरी: ईद मुबारक़ अंकल...!
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बात उन दिनों की है जब मैं शायद 8 या 10 साल की थी | मेरा घर एक छोटे से शहर के बड़े से मोहल्ले में था | वहाँ दिवाली होली ईद क्रिसमस सिर्फ एक मज़हब के लोग नहीं पूरा मोहल्ला साथ में मनाता था । हर कोई वहाँ मुँह बोले रिश्तों में बंधा था | ज्यादातर मोहल्ले वाले हमारे अंकल आंटी नहीं बल्कि दादा दादी चाचा चाची होते थे | वैसे मुझे सारा मोहल्ला जनता था पर सामने वाले घर से मुझे और मेरे भाई को कुछ ज्यादा लगाव था। अंकल आंटी (क्यूंकि वो मम्मी पापा से बहुत बड़े थे इसलिए चाचा चाची नहीं बोल सकते थे ) और उनके 5 बच्चे। 3 लड़के जिनसे भाई की खूब बनती और 2 लड़कियाँ जिनसे मेरी खूब बनती | वो हर होली हमारे यहाँ गुजिया खाने आते और हम हर ईद उनके यहाँ सेवइयां।
सब एकदम सही और खुशनुमां था सिर्फ एक चीज़ के | वो ये के मुझे अंकल से बहुत डर लगता था। इतना के अगर में घर से बहार निकलूं और अंकल अपने दवाज़े पर खड़े हों तो मैं उलटे पैर घर में चुप चाप वापस चली जाती थी। छत से छुप छुप कर देखती और जब अंकल वहां नहीं होते तभी बाहर जाती, फिर चाहे लंगड़ी में मुझे अपनी 2-3 चाल ही क्यों ना छोड़नी पड़े। इस बेवज़ह से डर की वज़ह तो मुझे आज तक नहीं पता। पर डरती थी तो डरती थी।
खैर ईद का दिन था और मैं हर साल की तरह अंकल का अपने दोस्तों से मिलने जाने का इंतज़ार कर रही थी। सुबह से सुन्दर से कपड़े पहनकर बैठ गई। सामने से आँटी मुझे कई बार आवाज़ लगा चुकी थी। मम्मी पापा और भइया अपने अपने हिसाब से ईद मिलकर आ चुके थे। सोचा था अकेले जाउंगी तो खेलने के लिए रुकने का मौका मिल जायेगा। सुबह से दोपहर हो गई पर अंकल आज कहीं नहीं गए। उन्होंने शायद अपने सारे दोस्तों को अपने घर बुलाया था। पर मैं अभी भी हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी। तभी अंदर से मम्मी की आवाज़ आई , "शानू जा रही हो ? नहीं तो कपडे बदल कर रख दो, बिना वजह खराब कर लोगी। "
"जा रही हूँ मम्मी जा रही हूँ, दरवाज़ा बाहर से लगाकर। " कितनी मुश्किल से बर्थडे फ्रॉक फिर से पहनने का मौका मिला था , बिना किसी को दिखाए कैसे उतार देती। "
"सुनो सबको ईद मुबारक़ बोलना। "
"ठीक है। "
मैंने एक लम्बी सांस ली और निकल आई मिशन ईद मुबारक पर (अकेली निहथ्थी )| हर बढ़ते कदम के साथ मेरे दिल की धड़कन और 'अंकल ईद मुबारक' की रट बढ़ती ही जा रही थी। उन 10 क़दमों में मैं कम से कम 50 बार खुद से 'अंकल ईद मुबारक' बोल चुकी थी। दरवाज़े से जैसे ही पहला कदम अंदर रखा तो सामने अंकल और उनके कुछ दोस्त बैठे हुए थे। मेरी सांस और रट दोनों बंद हो गए। मेरे वहां पहुँचते ही सब चुप हो गए और मुझे घूरने लगे। शायद मेरे कुछ कहने का इंतज़ार कर रहे थे। तभी याद आया 'अंकल ईद मुबारक' तो बोलना ही भूल गई। बिना एक भी सेकंड गवाए मैंने मुँह खोला और अंकल की तरफ मुस्कुराकर बोला , "अंकल हैप्पी दीवाली। " *क्याआआआआआआआआआआआआआआआआ ये क्या निकला मेरे मुँह से ????????? * मन करा के उसी पल वहां से भाग जाऊँ और कभी वापस ना आऊं । जमीन फट जाए मैं उसमे घुस जाऊँ। या ऊपर से सॅटॅलाइट आकर मेरे ऊपर गिर जाए। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ और मैं अजीब सी शकल बनाकर वहीँ खड़ी रही।
इसके आगे कुछ सोचती तभी वहां बैठे सभी लोग ज़ोर ज़ोर से हंसने लगे। अंकल भी। शायद इतनी भी बड़ी गलती नहीं करी थी मैंने। अंकल उठकर मेरे पास आये और मुझे गले से लगाकर बोले आपको भी ईद मुबारक बेटा। "रौशनी देखो शानू आई है, अंदर ले जाओ। " मेरी जान में जान आई | थोड़ी देर बाद जब मैं सेवइयां खाकर बाहर आई तो अंकल तो ईद मुबारक बोला और इस बार बिना डरे और एकदम सही । उस दिन के बाद से अंकल को लेकर मेरा डर ख़त्म हो गया। कई बार जब अंकल को गुड मॉर्निंग भी बोलती तो वो मुझे पलटकर हैप्पी दीवाली बेटा ही बोलते और हम दोनों खूब हँसते। अब अंकल हमारे बीच नहीं हैं पर आप जहाँ भी हो आपको हैप्पी दीवाली अंकल , उप्स ईद मुबारक अंकल ।
सब एकदम सही और खुशनुमां था सिर्फ एक चीज़ के | वो ये के मुझे अंकल से बहुत डर लगता था। इतना के अगर में घर से बहार निकलूं और अंकल अपने दवाज़े पर खड़े हों तो मैं उलटे पैर घर में चुप चाप वापस चली जाती थी। छत से छुप छुप कर देखती और जब अंकल वहां नहीं होते तभी बाहर जाती, फिर चाहे लंगड़ी में मुझे अपनी 2-3 चाल ही क्यों ना छोड़नी पड़े। इस बेवज़ह से डर की वज़ह तो मुझे आज तक नहीं पता। पर डरती थी तो डरती थी।
खैर ईद का दिन था और मैं हर साल की तरह अंकल का अपने दोस्तों से मिलने जाने का इंतज़ार कर रही थी। सुबह से सुन्दर से कपड़े पहनकर बैठ गई। सामने से आँटी मुझे कई बार आवाज़ लगा चुकी थी। मम्मी पापा और भइया अपने अपने हिसाब से ईद मिलकर आ चुके थे। सोचा था अकेले जाउंगी तो खेलने के लिए रुकने का मौका मिल जायेगा। सुबह से दोपहर हो गई पर अंकल आज कहीं नहीं गए। उन्होंने शायद अपने सारे दोस्तों को अपने घर बुलाया था। पर मैं अभी भी हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी। तभी अंदर से मम्मी की आवाज़ आई , "शानू जा रही हो ? नहीं तो कपडे बदल कर रख दो, बिना वजह खराब कर लोगी। "
"जा रही हूँ मम्मी जा रही हूँ, दरवाज़ा बाहर से लगाकर। " कितनी मुश्किल से बर्थडे फ्रॉक फिर से पहनने का मौका मिला था , बिना किसी को दिखाए कैसे उतार देती। "
"सुनो सबको ईद मुबारक़ बोलना। "
"ठीक है। "
मैंने एक लम्बी सांस ली और निकल आई मिशन ईद मुबारक पर (अकेली निहथ्थी )| हर बढ़ते कदम के साथ मेरे दिल की धड़कन और 'अंकल ईद मुबारक' की रट बढ़ती ही जा रही थी। उन 10 क़दमों में मैं कम से कम 50 बार खुद से 'अंकल ईद मुबारक' बोल चुकी थी। दरवाज़े से जैसे ही पहला कदम अंदर रखा तो सामने अंकल और उनके कुछ दोस्त बैठे हुए थे। मेरी सांस और रट दोनों बंद हो गए। मेरे वहां पहुँचते ही सब चुप हो गए और मुझे घूरने लगे। शायद मेरे कुछ कहने का इंतज़ार कर रहे थे। तभी याद आया 'अंकल ईद मुबारक' तो बोलना ही भूल गई। बिना एक भी सेकंड गवाए मैंने मुँह खोला और अंकल की तरफ मुस्कुराकर बोला , "अंकल हैप्पी दीवाली। " *क्याआआआआआआआआआआआआआआआआ ये क्या निकला मेरे मुँह से ????????? * मन करा के उसी पल वहां से भाग जाऊँ और कभी वापस ना आऊं । जमीन फट जाए मैं उसमे घुस जाऊँ। या ऊपर से सॅटॅलाइट आकर मेरे ऊपर गिर जाए। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ और मैं अजीब सी शकल बनाकर वहीँ खड़ी रही।
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